अब तो सँवारने के लिए हिज्र भी नहीं
सारा वबाल ले के ग़ज़ल कर दिया गया
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बिंत-ए-हव्वा
अरीज़े की डाली
मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
आमरियत का क़सीदा
जब आह भी चुप हो तो ये सहराई करे क्या
फ़ना की अंजुमन से
आगही का जाल
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
गुम-शुदा लम्हे की तलाश
हर एक ख़्वाब सो गया ख़याल जागते रहे