ज़ौक़-ए-सुख़न को अब तो तेरे आग लगाना अच्छा है
ज़ौक़-ए-सुख़न को अब तो तेरे आग लगाना अच्छा है
मुफ़लिस घर की हालत है और शे'र सुनाना अच्छा है
मेरी सच्ची चाहत देखी कह बैठा वो महफ़िल में
मेरे सब दीवानों में से ये दीवाना अच्छा है
तीर-ए-नज़र से ऐसा मारे दिल का पंछी ताब न ले
दुनिया घर के सय्यादों से उस का निशाना अच्छा है
शैख़ तो मस्जिद में जाता है अंदर से दिल काला है
सच्चे आबिद जहाँ खड़े हूँ वो बुत-ख़ाना अच्छा है
ऐसी चाल कहाँ दूजे की क्यूँ तू ऐसा कहता है
वैसे तू ने पर्दे में मुझ को पहचाना अच्छा है
औरों को तल्क़ीन करे है लेकिन 'सरवर' नासेह का
मय-ख़ाने में चुपके चुपके आना-जाना अच्छा है
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