शब-ए-तारीक चुप थी दर-ओ-दीवार चुप थे
शब-ए-तारीक चुप थी दर-ओ-दीवार चुप थे
नुमूद-ए-सुब्ह-ए-नौ के सभी आसार चुप थे
तमाशा देखते थे हमारे ज़ब्त-ए-ग़म का
मुसल्लत एक डर था लब-ए-इज़हार चुप थे
हवाएँ चीख़ती थीं फ़ज़ाएँ गूँजती थीं
क़बीला बट रहा था मगर सरदार चुप थे
गिराता कौन बढ़ कर भला दीवार-ए-ज़ुल्मत
उजालों के पयम्बर पस-ए-दीवार चुप थे
मता-ए-आबरू को बचा सकते थे लेकिन
मुहाफ़िज़ सर-निगूँ थे तो पहरे-दार चुप थे
नहीं है इस से बढ़ कर कोई तौहीन फ़न की
ख़रीदे जा रहे थे मगर फ़नकार चुप थे
ज़माना चाहता था कहानी का तसलसुल
मगर पर्दे के पीछे सभी किरदार चुप थे
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