ये कौन उतरा पए-गश्त अपनी मसनद से
और इंतिज़ाम-ए-मकान ओ सिरा बदलने लगा
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क़सम इस आग और पानी की
इतने बहुत से रंग
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
लहर-लहर आवारगियों के साथ रहा
पत्थरों में आइना मौजूद है
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई
ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
सितारे का गुमान
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
आश्नाई का फ़रिश्ता