ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
मुझे सब्र ने ये समर दिया मुझे ज़ब्त ने ये हुनर दिया
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आए हैं रंग बहाली पर
आँखों में सौग़ात समेटे अपने घर आते हैं
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
आश्नाई का फ़रिश्ता
हवा ओ अब्र को आसूदा-ए-मफ़्हूम कर देखूँ
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
किताब-ए-सब्ज़ ओ दर-ए-दास्तान बंद किए
क़सम इस आग और पानी की
सुब्ह के शोर में नामों की फ़रावानी में
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो