ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
यहाँ तो हर दर-ओ-दीवार इक समुंदर है
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किस पर पोशीदा और किस पे अयाँ होना था
मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते
दरख़्त मेरे दोस्त
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
फिर वो बरसात ध्यान में आई
उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
सख़ावत का फ़रिश्ता
ये होंट तिरे रेशम ऐसे
नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजे
'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं