सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
इन्ही तारीकियों से मुझ को भी हिस्सा मिलेगा
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इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
सुब्ह होते ही
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
दिन और झाग
उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ
'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
दश्त ले जाए कि घर ले जाए
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
यहाँ मज़ाफ़ात में
मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले