शहज़ादी तुझे कौन बताए तेरे चराग़-कदे तक
कितनी मेहराबें पड़ती हैं कितने दर आते हैं
Javed Akhtar
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जिसे अंजाम तुम समझती हो
सख़ावत का फ़रिश्ता
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई
दश्त ले जाए कि घर ले जाए
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
विसाल
मैं तुम्हें याद कर रहा था
इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
नींद का फ़रिश्ता