'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
जैसे उन लोगों से मिलना फिर नहीं होगा
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आए हैं रंग बहाली पर
निस्यान का फ़रिश्ता
ये कौन उतरा पए-गश्त अपनी मसनद से
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
सितारे का गुमान
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
दरख़्त मेरे दोस्त
थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से
ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजे
फ़ुरात-ए-फ़ासिला से दजला-ए-दुआ से उधर
कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया