क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
कुछ इस से ज़ियादा है मिरा ख़ाक पे होना
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फ़ुरात-ए-फ़ासिला से दजला-ए-दुआ से उधर
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
पानी का हाथ
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
आँखों में सौग़ात समेटे अपने घर आते हैं
घर से निकला तो मुलाक़ात हुई पानी से
ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
सुब्ह के शोर में नामों की फ़रावानी में
शहज़ादी तुझे कौन बताए तेरे चराग़-कदे तक