पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर
इक कशिश माहताब जैसी चेहरा-ए-दिलबर में थी
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मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
पेपर-वेट
इतने बहुत से रंग
गदा-ए-शहर-ए-आइंदा तही-कासा मिलेगा
आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम
'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
दश्त छोड़ा तो क्या मिला 'सरवत'
ये जो फूट बहा है दरिया फिर नहीं होगा
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
महरान, मुझे दो