मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
इक अज़दहा चराग़ की लौ को निगल गया
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लफ़्ज़ों के दरमियान
मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
लहर-लहर आवारगियों के साथ रहा
मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
सुब्ह के शोर में नामों की फ़रावानी में
दश्त छोड़ा तो क्या मिला 'सरवत'
दिन और झाग
एक पुल बनाया जा रहा है
मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते
पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर