मैं आग देखता था आग से जुदा कर के
बला का रंग था रंगीनी-ए-क़बा से उधर
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मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
चाहत
अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
मैं तुम्हें याद कर रहा था
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
ये कौन उतरा पए-गश्त अपनी मसनद से
यक-ब-यक मंज़र-ए-हस्ती का नया हो जाना
विसाल
थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से
रात ढलने के ब'अद क्या होगा