ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
बाराँ का मुसलसल ख़स-ओ-ख़ाशाक पे होना
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पेपर-वेट
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
ये जो फूट बहा है दरिया फिर नहीं होगा
फ़ुरात-ए-फ़ासिला से दजला-ए-दुआ से उधर
किस पर पोशीदा और किस पे अयाँ होना था
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
दिन और झाग
कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
नज़्म
मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा