हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
मैं ने तराश ली है ख़िज़ाँ अपने हाथ से
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इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
पेपर-वेट
जब शाम हुई मैं ने क़दम घर से निकाला
हवा ओ अब्र को आसूदा-ए-मफ़्हूम कर देखूँ
पूरे चाँद की सज धज है शहज़ादों वाली
नींद का फ़रिश्ता
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
बुझी रूह की प्यास लेकिन सख़ी
दश्त छोड़ा तो क्या मिला 'सरवत'
अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
''एक नज़्म कहीं से भी शुरूअ हो सकती है''