इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
वो कौन थी जो रक़्स के आलम में मर गई
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लहर-लहर आवारगियों के साथ रहा
शहज़ादी तुझे कौन बताए तेरे चराग़-कदे तक
पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
वो मेरे सामने मल्बूस क्या बदलने लगा
इतने बहुत से रंग
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई