बुझी रूह की प्यास लेकिन सख़ी
मिरे साथ मेरा बदन भी तो है
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दश्त ले जाए कि घर ले जाए
पत्थरों में आइना मौजूद है
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
''एक नज़्म कहीं से भी शुरूअ हो सकती है''
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा
आए हैं रंग बहाली पर
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं