बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सो मैं ने आइना ओ आसमाँ पसंद किए
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नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
पत्थरों में आइना मौजूद है
तेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी ऐ दिल
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई
दिन और झाग
सुब्ह के शहर में इक शोर है शादाबी का
जब शाम हुई मैं ने क़दम घर से निकाला
थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से
दस से ऊपर
गदा-ए-शहर-ए-आइंदा तही-कासा मिलेगा
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में