अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
और उस के लिए शाख़ से इक फूल उतारा
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सुब्ह होते ही
दिन और झाग
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
वो मेरे सामने मल्बूस क्या बदलने लगा
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
दस से ऊपर
उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
पूरे चाँद की सज धज है शहज़ादों वाली
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में