साया है गहरी चुप का अकेले मकान पर
दिल मुतमइन बहुत है मगर इस गुमान पर
रौशन है इक सितारा हमारे भी नाम का
पेड़ों की चोटियों से उधर आसमान पर
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'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
एक पुल बनाया जा रहा है
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
आँखों में सौग़ात समेटे अपने घर आते हैं
दस से ऊपर
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
यहाँ मज़ाफ़ात में
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
विसाल
गर्दिश-ए-सय्यारगाँ ख़ूब है अपनी जगह