सख़ावत के फ़रिश्ते को उतरता देख कर सूरज
हुआ रू-पोश बादल में, ज़मीं कहने लगी आओ
तलाई, नुक़रई सिक्के उछालो शादमानी के
खुलें औराक़ लोगों पर किताब-ए-ज़िंदगानी के
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उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
जिसे अंजाम तुम समझती हो
किताब-ए-सब्ज़ ओ दर-ए-दास्तान बंद किए
आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई
मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
दिन और झाग
इतने बहुत से रंग
सुब्ह होते ही
ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
सुब्ह के शहर में इक शोर है शादाबी का