उजले परिंदो वो दिन कितना मैला होगा
आसमान बहुत दूर दूर तक फैला होगा
मैं कश्ती के फ़र्श पे गिर जाऊँगा थक कर
पानी का हाथ सुला देगा मुझे थपक कर
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रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थी
वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
जिसे अंजाम तुम समझती हो
क़सम इस आग और पानी की
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
निस्यान का फ़रिश्ता
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
गदा-ए-शहर-ए-आइंदा तही-कासा मिलेगा
हवा ओ अब्र को आसूदा-ए-मफ़्हूम कर देखूँ
दस से ऊपर
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर