फूल पानी पर खिला मिरी मौजूदगी का
सल्तनत सुब्ह-ए-बहाराँ की
बहुत नज़दीक से आवाज़ देती है
सुबुक-रफ़्तार
पैहम घूमते पहिए
गिराँ-ख़्वाबी से जागे
आफ़्ताबी पैरहन का घेर दीवारों को छूता
प्यार करता
रक़्स फ़रमाता
अरे!!!
सूरज निकल आया.....
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विसाल
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
मैं तुम्हें याद कर रहा था
सुब्ह के शोर में नामों की फ़रावानी में
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
रात ढलने के ब'अद क्या होगा
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
वो मेरे सामने मल्बूस क्या बदलने लगा
शादमानी का फ़रिश्ता