रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थी
रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थी
इक सहीफ़े की तिलावत ज़ेहन-ए-पैग़मबर में थी
आदमी की बंद मुट्ठी में सितारा था कोई
एक जादूई कहानी सुब्ह के मंतर में थी
एक रख़्श-ए-संग था आतिश-कदे के सामने
एक नीली मोम-बत्ती दस्त-ए-आहन-गर में थी
बीच में सोई हुई थी आतिश-ए-आइंदगाँ
एक पैराहन की ठंडक धूप की चादर में थी
पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर
इक कशिश माहताब जैसी चेहरा-ए-दिलबर में थी
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