किताब-ए-सब्ज़ ओ दर-ए-दास्तान बंद किए
वो आँख सो गई ख़्वाबों को अर्जुमंद किए
गुज़र गया है वो सैलाब-ए-आतिश-ए-इमरोज़
बग़ैर ख़ेमा ओ ख़ाशाक को गज़ंद किए
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सो मैं ने आइना ओ आसमाँ पसंद किए
इसी जज़ीरा-ए-जा-ए-नमाज़ पर 'सरवत'
ज़माना हो गया दस्त-ए-दुआ बुलंद किए