आँखों में सौग़ात समेटे अपने घर आते हैं
आँखों में सौग़ात समेटे अपने घर आते हैं
बजरे लागे बंदर-गाह पे सौदागर आते हैं
ज़र्द ज़बूर तिलावत करती है तस्वीर ख़िज़ाँ की
ऐन-बहार में कैसे कैसे ख़्वाब नज़र आते हैं
गंदुम और गुलाबों जैसे ख़्वाब शिकस्ता करते
दूर-दराज़ ज़मीनों वाले शहर में दर आते हैं
शहज़ादी तुझे कौन बताए तेरे चराग़-कदे तक
कितनी मेहराबें पड़ती हैं कितने दर आते हैं
बंद-ए-क़बा-ए-सुर्ख़ की मंज़िल उन पर सहल हुई है
जिन हाथों को आग चुरा लेने के हुनर आते हैं
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