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ज़र्रा - सरशार सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ज़र्रा

दश्त की बे-पायाँ वुसअ'त में

कोहसारों के दामन में

ज़र्रा

अपने होने और न होने का दुख झेल रहा था

ज़र्रा जो ख़ुद अपने वजूद में

एक मुकम्मल दुनिया है

जिस के बत्न में

सारा निज़ाम-ए-शमस-ओ-क़मर पोशीदा है

जिस की वहदत के सीने में

नज़र न आने वाली कसरत का जल्वा है

अहल-ए-नज़र ने पिछली सदी में

इस पामाल ज़मीर के अंदर

इस बे-नाम वजूद में मुज़्मर

उस ताक़त की गवाही दी है

जो इस के बेदार ख़मीर में

सदियों तक ख़्वाबीदा रही है

अहल-ए-हुनर अहल-ए-हिकमत ने

जब इस ख़ुफ़्ता क़ुव्वत का इदराक किया

ज़र्रे का दिल चाक किया

सदियों की सहमी हुई

ना-आसूदा महरूमी को बे-बाक किया

इसी तवानाई की बदौलत

इसी हक़ीर से बे-तौक़ीर से

ख़ाकिस्तर ज़र्रे ने

इक दिन

हीरोशीमा को ख़ाक किया

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In Hindi By Famous Poet Sarshar Siddiqui. is written by Sarshar Siddiqui. Complete Poem in Hindi by Sarshar Siddiqui. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.