उस के जाने का यक़ीं तो है मगर उलझन में हूँ
फूल के हाथों से ये ख़ुश-बू जुदा कैसे हुई
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नींद से जागी हुई आँखों को अंधा कर दिया
मरने का पता दे मिरे जीने का पता दे
किस शख़्स की तलाश में सर फोड़ती रही
नज़्म
सर झुका लेता था पहले जिस को अक्सर देख कर
कौन है किस ने पुकारा है सदा कैसे हुई
हाँ मेरी महबूबा
सब की अपनी मंज़िलें थीं सब के अपने रास्ते
उस के मिलने पे भी महसूस हुआ है 'सरमद'
महबूबा के लिए आख़िरी नज़्म
हमारे लिए सुब्ह के होंट पर बद-दुआ' है