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महबूबा के लिए आख़िरी नज़्म - सरमद सहबाई कविता - Darsaal

महबूबा के लिए आख़िरी नज़्म

पहले जितनी बातें थीं वो तुम से थीं

तेरे ही नाम की एक रदीफ़ से सारे क़ाफ़िए

बनते और बिगड़ते थे

मैं अपने अंधे हाथों से

तेरे जिस्म के पुर-असरार ज़मानों की तहरीरें पढ़ लेता था

और फिर अच्छी अच्छी नज़्में घड़ लेता था

तू भी तो काग़ज़ के फूलों की मानिंद

हर मौसम में खिल जाती थी

ओर मैं हिज्र-ओ-विसाल की ख़ुश्की और तरी पर

तेरे लिए हर हाल में ज़िंदा रह लेता था

अपने लिए भी तेरी तरफ़ से

सारी बातें कह लेता था

तेरी सूरत मेरे होने और न होने

जागने सोने की इस धूप और छाँव में

एक ही जैसी रहती थी

और मेरी साँसों का बख़्त तुम्हारे ही पल्लू से बँधा था

लेकिन अब तो तेरी साड़ी के सब लहरए

मेरे जिस्म को डस भी चुके हैं

अब तो जाओ

मेरी पुरानी नज़्मों की अलमारी में आराम से जा कर सो जाओ

क्यूँकि मैं अब अपने आप से बातें करना चाहता हूँ

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In Hindi By Famous Poet Sarmad Sahbai. is written by Sarmad Sahbai. Complete Poem in Hindi by Sarmad Sahbai. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.