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सर झुका लेता था पहले जिस को अक्सर देख कर - सरमद सहबाई कविता - Darsaal

सर झुका लेता था पहले जिस को अक्सर देख कर

सर झुका लेता था पहले जिस को अक्सर देख कर

आज पागल हो गया उस को बराबर देख कर

ख़्वाहिशों में बह गया कमज़ोर मिट्टी का हिसार

जिस्म क़तरे में सिमट आया समुंदर देख कर

सोचता हूँ रात के अंधे सफ़र के मोड़ पर

चाँद घबराया तो होगा ख़ाली बिस्तर देख कर

आँख खुलते ही हर इक लम्हे में मेरा अक्स था

मैं बिखर जाता हूँ इस खिड़की के बाहर देख कर

तू ही उतरेगा ख़राबों में फ़राज़-ए-अर्श से

हम तो बेहिस हो चुके हैं अब ये मंज़र देख कर

चाँद तकने की तमन्ना ले के वापस आ गया

दूसरों के घर को अपनी छत से ऊपर देख कर

अब तो मुड़ कर भी किसी आवाज़ को सुनता नहीं

जा-ब-जा बिखरे हुए सड़कों पे पत्थर देख कर

मुझ को 'सरमद' अपनी भी पहचान तक बाक़ी नहीं

शख़्स इक अपने ही जैसा अपने अंदर देख कर

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In Hindi By Famous Poet Sarmad Sahbai. is written by Sarmad Sahbai. Complete Poem in Hindi by Sarmad Sahbai. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.