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दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग - सरमद सहबाई कविता - Darsaal

दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग

दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग

हम में है शायद कोई महव-ए-सफ़र सब से अलग

चलते चलते वो भी आख़िर भीड़ में गुम हो गया

वो जो हर सूरत में आता था नज़र सब से अलग

सब की अपनी मंज़िलें थीं सब के अपने रास्ते

एक आवारा फिरे हम दर-ब-दर सब से अलग

है रह-ओ-रस्म-ए-ज़माना पर्दा-ए-बेगानगी

दरमियाँ रहता हूँ मैं सब के मगर सब से अलग

दे के आदत रंज की होता है मुझ पर मेहरबाँ

उस सितमगर ने ये सीखा है हुनर सब से अलग

शहर-ए-कसरत में अजब इक रौज़न-ए-ख़ल्वत खुला

उस ने जो देखा मुझे इक लम्हा भर सब से अलग

हर कोई शामिल हुआ 'सरमद' जुलूस-ए-आम में

मुँह उठाए चल दिया है तू किधर सब से अलग

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In Hindi By Famous Poet Sarmad Sahbai. is written by Sarmad Sahbai. Complete Poem in Hindi by Sarmad Sahbai. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.