साल गुज़र जाता है सारा
और कैलन्डर रह जाता है
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जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
नज़र की धूप में आने से पहले
दो आँखों से कम से कम इक मंज़र में
जहाँ चौखट है वाँ ज़ीना था पहले
कभी होंटों पे ऐसा लम्स अपनी आँख खोले
नज़र आते थे हम इक दूसरे को
मिल-जुल कर ईमान ख़ुदा पर ला सकते हैं
ख़ुद से अपना आप मिलाया जा सकता है
इक अदावत से फ़राग़त नहीं मिलती वर्ना
ऐसी वैसी पे क़नाअत नहीं कर सकते हम
ये जो तालाब है दरिया था कभी
ग़फ़लतों का समर उठाता हूँ