इक अदावत से फ़राग़त नहीं मिलती वर्ना
कौन कहता है मोहब्बत नहीं कर सकते हम
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ख़ुद से अपना आप मिलाया जा सकता है
ग़फ़लतों का समर उठाता हूँ
जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
फिर ऐसा मोड़ इस क़िस्से में आया
हवा चलती है दम ठहरा हुआ है
ख़्वाब में मंज़र रह जाता है
ये जो तालाब है दरिया था कभी
नज़र आते थे हम इक दूसरे को
दो आँखों से कम से कम इक मंज़र में
भँवर में मशवरे पानी से लेता हूँ
नज़र की धूप में आने से पहले
साल गुज़र जाता है सारा