ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
ये ज़िंदगी भी कोई तर्ज़-ए-इंतिक़ाम है क्या
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दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार