वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
सो पा लिया है उसे ख़ुद को राएगाँ कर के
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तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
आँखों ने बनाई थी कोई ख़्वाब की तस्वीर
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
न रात बाक़ी है कोई न ख़्वाब बाक़ी है
अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी