वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
रह जाती हैं सायों में उलझ कर मिरी आँखें
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मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
आँखों ने बनाई थी कोई ख़्वाब की तस्वीर
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
न रात बाक़ी है कोई न ख़्वाब बाक़ी है
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती