तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
तो जाएँ और कहीं उस ने जब पुकारा नहीं
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सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं