तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
तवाफ़ फिर किसी काबे का कर रहा हूँ मैं
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नज़्म
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
मौसम कोई भी हो पे बदलता नहीं हूँ मैं
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था