सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
सो शहर भी इक रोज़ बयाबान रहेगा
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किसी ने जाँ ही लुटा दी वफ़ाओं की ख़ातिर
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
होश जाता रहा दुनिया की ख़बर ही न रही
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी