सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
किसी गुनाह की ख़्वाहिश को पालते रहना
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रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले
नज़्म
ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की