शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
शुरूअ उस ने किया था तमाम मैं ने किया
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नज़्म
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई