पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
तन्हा किसी सफ़र पे निकलता नहीं हूँ मैं
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सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे