मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
क्या तुम को भी अब मेरी ख़बर होने लगी है
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हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए