मौसम कोई भी हो पे बदलता नहीं हूँ मैं
या'नी किसी भी साँचे में ढलता नहीं हूँ मैं
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इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की
आँखों ने बनाई थी कोई ख़्वाब की तस्वीर
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं