मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
चीख़ता रहता है सहरा-ए-बदन के अंदर
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तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं