मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
मिरे लबों पे जो रहता है उस का नाम है क्या
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उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता