किसी ने जाँ ही लुटा दी वफ़ाओं की ख़ातिर
तुम ही बताओ कि क़िस्सा ये किस किताब का है
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अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो
नज़्म
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार
रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले