ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
रात की तन्हाइयों में ख़ूब रोना चाहिए था
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अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले
अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
तेरे होने से भी अब कुछ नहीं होने वाला
किसी ने जाँ ही लुटा दी वफ़ाओं की ख़ातिर
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में