इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
सौदा कोई हमारे भी सर में नहीं रहा
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सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
मौसम कोई भी हो पे बदलता नहीं हूँ मैं
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की