बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
और मुझ को सर-ए-बाज़ार लिए फिरता है
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तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
होश जाता रहा दुनिया की ख़बर ही न रही
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार